Tuesday, 20 May 2014

Spiritual knowledge is Universe

परमात्मा सभी सत्ताओं में व्यक्त और अव्यक्त रूप में है। इसी स्वाभाविकता के कारण वह सभी सत्ताओं में कभी नहीं बदलने वाले रूप में विराजमान है। इस परम एकता की अवस्था में जब हम उन्हें देखने जाते हैं तो सारे भेद मिट जाते हैं। वास्तविकता में आध्यात्मिक साधकों के लिए वह प्रथम और अंतिम शब्द है- बहुतों को एक के रूप में देखना। पदार्थ विज्ञान विश्लेषणात्मक है, इसलिए पदार्थ पर शोध और अनुसंधान बाहर से होता है। किन्तु जो एक है, उस क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिए और आध्यात्मिक अर्थ ग्रहण करने के लिए आंतरिक विश्लेषण करना ही होगा। इसके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं। यह ईश्वरीय सत्ता स्थायी रूप से सभी वस्तुओं में स्थित है और इसलिए उन्हें देखने के लिए स्वयं को सूक्ष्मतम में प्रतिष्ठित करना पड़ेगा, गहरे से गहरे में जाना पड़ेगा। वे अंतरतम के बिन्दु पर अधिष्ठित हैं और परम ज्ञाता के रूप में मूल बुद्धि के पीछे भी वही हैं । वे इस ‘गुहा’ की प्राण सत्ता हैं, हमारे ‘अहम’ के द्रष्टा हैं और इसलिए उन्हें ‘गुहायित’ कहा जाता है।

उन्हें जानने के लिए हमें सीधे और सरल पथ से अपने अंतरतम में जाना पड़ेगा, अपने विचारों को सूक्ष्म, और ज्यादा सूक्ष्म करते हुए। जो सद्गुरु हैं, परम सत्य के ज्ञाता हैं, जिनसे हम ब्रह्म ज्ञान सीखेंगे, वे हमे समझा देंगे कि आत्मा, मन के कई स्तरों से अत्यन्त सूक्ष्म है। मन के ये स्तर परिवर्तनशील और क्षणजीवी हैं। आत्मा ही शाश्वत है। अत: आध्यात्मिक ज्ञान से जिस आनंद को हम प्राप्त करेंगे, वह शाश्वत आनंद होगा, इसलिए उसे ‘ब्रह्मनन्द’ कहा जाता है। अस्थायी वस्तुओं से आनंद नहीं प्राप्त किया जा सकता है। अस्थायी और काल से बंधी वस्तुएं आएंगी और चली जाएंगी, कभी वह हमें हंसाएंगी और कभी रुलाएंगी। काल से बंधी वस्तुएं कितनी भी प्रिय क्यों न हो, एक दिन वे निश्चित रूप से हमें छोड़ कर एक झटके के साथ हमें निकम्मा और भिखारी बना कर चली जाएंगी। किन्तु वे (ब्रह्म) हमे विलाप करने नहीं देंगे। वे शाश्वत हैं, चिरंतन हैं, कभी नहीं बदलने वाली सत्ता हैं। 
यम कहते हैं, ‘हे नचिकेता, परमपुरुष के साम्राज्य का महाद्वार तुम्हारे सामने खुला हुआ है।

जिसने सम्पूर्ण रूप से मानस तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसने विनाशशील और अविनाशी का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया है। मानसिक विकास के साथ साथ जब कोई खंड सुख से अखंड सुख की ओर बढ़ता है, तब उसे भौतिक सुख की अपेक्षा मानसिक सुख में ज्यादा रुचि हो जाती है। वस्तुत: यह सभी मानवीय मन की ही प्रभुत्वता का प्रमाण है। अष्टांग योग के माध्यम से देह और मन में सचेत साधक क्रमश: अपने सोई हुई मानसिक शक्ति को जगा सकते हैं और उन्नत मन की सहायता से वे परम शांति अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। इस दशा में ही कोई प्रकृत आनन्द को प्राप्त करते हैं।  

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