बदलते समीकरण : मोदी लहर से घबराए धुर विरोधी तलाश रहे एक-दूसरे का कंधा
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लोकसभा चुनाव मे पूर्ण बहुमत क्या मिला, देश के राजनीतिक समीकरण ही बदलने लगे। कभी एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले राजनेता आज एक-दूसरे को सहारा देते हुए दिख रहे हैं। लालू यादव ने जहां बिहार में जदयू को बाहर से समर्थन देकर नीतीश कुमार की "इज्जत" बचा ली, वहीं दिग्विजय सिंह शरद पवार और ममता बनर्जी से कांग्रेस में वापस आने की अपील करते दिख रहे हैं। देश में अचानक करवट लेती इस राजनीति के क्या हैं मायने और भविष्य में क्या होंगे इसके परिणाम, पढिए राजनीतिक विश्लेषकों की कलम से...
अस्तित्व रक्षा का सवाल
प्रमोद जोशी, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
बिहार की राजनीति निराली है। वहां जो सामने होता है, वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं देता। जीतनराम मांझी की सरकार को सदन का विश्वास यों भी मिल जाना चाहिए था, क्योंकि सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था। ऎसे में लालू यादव के बिन मांगे समर्थन के माने क्या हैं ? फिरकापरस्त ताकतों से बिहार को बचाने की कोशिश?
राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कहा गया है कि यह एक ऎसा वक्त है जब फिरकापरस्त ताकतों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को छोटे-मोटे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। क्या वास्तव में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच छोटे-मोटे मतभेद थे? सच यह है कि दोनों नेताओं के सामने इस वक्त अस्तित्व रक्षा का सवाल है। दोनों की राजनीति व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के खिलाफ है। इसमें सैद्धांतिक एकता खोजने की कोशिश रेगिस्तान में सूई ढूंढ़ने जैसी है।
"प्राण" बचाने की कोशिश
हां, यह समझ में आता है कि फौरी तौर पर दोनों नेता राजनीतिक प्राण बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भला बिन मांगे समर्थन की जरूरत क्या थी? इसे किसी सैद्धांतिक चश्मे से देखने की कोशिश मत कीजिए। यह एकता अगले कुछ दिन के भीतर दरक जाए तो विस्मय नहीं होना चाहिए। राजद ने साफ कहा है कि मांझी-सरकार को यह समर्थन तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। यह तात्कालिक एकता कैसी है?
मोदी का खतरा तो चुनाव के पहले ही पैदा हो चुका था। कहा जा रहा है कि बीस साल बाद जनता परिवार की एकता फिर से स्थापित हो गई है। पर यह एकता भंग ही क्यों हुई थी? वे क्या हालात थे, जिनमें जनता दल टूटा? क्या वजह थी कि जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया?
कैसी वैचारिक एकता?
बिहार की राजनीति संकीर्णता के दायरे से बाहर नहीं निकलेगी। पिछले साल जब नीतीश कुमार एनडीए को छोड़कर अलग हो रहे थे तब उन्हें लगता था कि वे नरेन्द्र मोदी के विरोध के नाम पर मुसलमानों का वोट हासिल करेंगे। महादलित तो उनके साथ हैं ही। ऎसा नहीं हुआ और पार्टी रसातल में पहुंच गई है। अब इस नई एकता के मायने क्या हैं?
लालू से एकता बाद में होगी, पहले जेडीयू में ही एकता नहीं है। नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच मतैक्य नहीं है। पिछले बीस साल से नीतीश की राजनीति का उद्देश्य बिहार को "लालू के जंगल राज" से बचाना था। अब यह वैचारिक एकता कहां से आ गई?
दोनों को दिल्ली में ठिकाने की तलाश
कहा जा रहा है कि शरद यादव राष्ट्रीय जनता दल (युनाइटेड) नाम से नई पार्टी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भी आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा है। असल बात यह लगती है कि सबको दिल्ली में ठिकाने की तलाश है। लालू यादव अपने बिन मांगे समर्थन के बदले में राबड़ी या मीसा के लिए राज्यसभा की सीट मांगेंगे!
लोकसभा की सदस्यता जाने के बाद लालू के परिवार के पास दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं है। राज्यसभा से राजीव प्रताप रूडी, रामकृपाल यादव और रामविलास पासवान की तीन सीटें खाली हो रही हैं। विधानसभा की संरचना को देखते हुए इनमें से एक सीट भाजपा हासिल कर सकती है। शेष दो सीटें जेडीयू, राजद और कांग्रेस के विधायकों के सहारे जीती जा सकती हैं।
भाजपा सम्भवत: शाहनवाज हुसैन को यह सीट देना चाहेगी, क्योंकि उसके पास कोई मुस्लिम सांसद नहीं है। हो सकता है कि लालू-नीतीश एकता तीनों सीटें हासिल करने में सफल हो जाएं। ऎसा नहीं हुआ तो बाकी दो सीटों में से एक को शरद यादव हासिल करना चाहेंगे। उनके पास भी दिल्ली में ठौर नहीं बचा। दूसरी सीट पर नीतीश कुमार और लालू दोनों की निगाहें हैं।
नीतीश के पास राज्य में काम नहीं और लालू के परिवार को दिल्ली में घर चाहिए। फिलहाल इस एकता के पीछे यही बड़ा कारण लगता है। इसे सैद्धांतिक जामा पहनाया गया है। लालू-नीतीश की जोड़ी बन सकती है और इन्हें लगता है कि वे मिलकर भाजपा को हरा सकते हैं तो उन्हें विधानसभा चुनाव करा लेना चाहिए। सदन का डेढ़ साल का कार्यकाल अभी बाकी है। इस सरकार की कोई गारंटी नहीं कि अगले डेढ़ साल चलेगी। मानसून आने वाला है, दिल्ली की हवाओं का असर पटना में भी होगा।
लालू-नीतीश की जोड़ी
नीतीश और लालू प्रसाद दोनों छात्र राजनीति और जेपी आंदोलन से निकले हैं। दोनों ने एक ही साथ राजनीति शुरू की।
अस्सी और नब्बे के दशक तक दोनों साथ रहे। लालू प्रसाद प्रदेश के सीएम बने और नीतीश कुमार संसद पहुंचे।
लालू के सीएम बनने के बाद दूरियां बनीं, तो 1994 में नीतीश ने समता पार्टी बनाई। सीपीआई-एमएल के साथ चुनाव लड़ा।
वष्ाü 1996 में नीतीश ने केंद्र में भाजपा को समर्थन दिया। जेडीयू और भाजपा गठबंधन ने वर्ष 2005 में लगभग डेढ़ दशक का लालू राज खत्म किया।
नीतीश जून 2013 में बीजेपी से अलग हो गए। आम चुनाव में उनकी और लालू की स्थिति कमजोर हुई, तो फिर दोनों ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया। -
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लोकसभा चुनाव मे पूर्ण बहुमत क्या मिला, देश के राजनीतिक समीकरण ही बदलने लगे। कभी एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले राजनेता आज एक-दूसरे को सहारा देते हुए दिख रहे हैं। लालू यादव ने जहां बिहार में जदयू को बाहर से समर्थन देकर नीतीश कुमार की "इज्जत" बचा ली, वहीं दिग्विजय सिंह शरद पवार और ममता बनर्जी से कांग्रेस में वापस आने की अपील करते दिख रहे हैं। देश में अचानक करवट लेती इस राजनीति के क्या हैं मायने और भविष्य में क्या होंगे इसके परिणाम, पढिए राजनीतिक विश्लेषकों की कलम से...
अस्तित्व रक्षा का सवाल
प्रमोद जोशी, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
बिहार की राजनीति निराली है। वहां जो सामने होता है, वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं देता। जीतनराम मांझी की सरकार को सदन का विश्वास यों भी मिल जाना चाहिए था, क्योंकि सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था। ऎसे में लालू यादव के बिन मांगे समर्थन के माने क्या हैं ? फिरकापरस्त ताकतों से बिहार को बचाने की कोशिश?
राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कहा गया है कि यह एक ऎसा वक्त है जब फिरकापरस्त ताकतों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को छोटे-मोटे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। क्या वास्तव में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच छोटे-मोटे मतभेद थे? सच यह है कि दोनों नेताओं के सामने इस वक्त अस्तित्व रक्षा का सवाल है। दोनों की राजनीति व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के खिलाफ है। इसमें सैद्धांतिक एकता खोजने की कोशिश रेगिस्तान में सूई ढूंढ़ने जैसी है।
"प्राण" बचाने की कोशिश
हां, यह समझ में आता है कि फौरी तौर पर दोनों नेता राजनीतिक प्राण बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भला बिन मांगे समर्थन की जरूरत क्या थी? इसे किसी सैद्धांतिक चश्मे से देखने की कोशिश मत कीजिए। यह एकता अगले कुछ दिन के भीतर दरक जाए तो विस्मय नहीं होना चाहिए। राजद ने साफ कहा है कि मांझी-सरकार को यह समर्थन तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। यह तात्कालिक एकता कैसी है?
मोदी का खतरा तो चुनाव के पहले ही पैदा हो चुका था। कहा जा रहा है कि बीस साल बाद जनता परिवार की एकता फिर से स्थापित हो गई है। पर यह एकता भंग ही क्यों हुई थी? वे क्या हालात थे, जिनमें जनता दल टूटा? क्या वजह थी कि जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया?
कैसी वैचारिक एकता?
बिहार की राजनीति संकीर्णता के दायरे से बाहर नहीं निकलेगी। पिछले साल जब नीतीश कुमार एनडीए को छोड़कर अलग हो रहे थे तब उन्हें लगता था कि वे नरेन्द्र मोदी के विरोध के नाम पर मुसलमानों का वोट हासिल करेंगे। महादलित तो उनके साथ हैं ही। ऎसा नहीं हुआ और पार्टी रसातल में पहुंच गई है। अब इस नई एकता के मायने क्या हैं?
लालू से एकता बाद में होगी, पहले जेडीयू में ही एकता नहीं है। नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच मतैक्य नहीं है। पिछले बीस साल से नीतीश की राजनीति का उद्देश्य बिहार को "लालू के जंगल राज" से बचाना था। अब यह वैचारिक एकता कहां से आ गई?
दोनों को दिल्ली में ठिकाने की तलाश
कहा जा रहा है कि शरद यादव राष्ट्रीय जनता दल (युनाइटेड) नाम से नई पार्टी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भी आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा है। असल बात यह लगती है कि सबको दिल्ली में ठिकाने की तलाश है। लालू यादव अपने बिन मांगे समर्थन के बदले में राबड़ी या मीसा के लिए राज्यसभा की सीट मांगेंगे!
लोकसभा की सदस्यता जाने के बाद लालू के परिवार के पास दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं है। राज्यसभा से राजीव प्रताप रूडी, रामकृपाल यादव और रामविलास पासवान की तीन सीटें खाली हो रही हैं। विधानसभा की संरचना को देखते हुए इनमें से एक सीट भाजपा हासिल कर सकती है। शेष दो सीटें जेडीयू, राजद और कांग्रेस के विधायकों के सहारे जीती जा सकती हैं।
भाजपा सम्भवत: शाहनवाज हुसैन को यह सीट देना चाहेगी, क्योंकि उसके पास कोई मुस्लिम सांसद नहीं है। हो सकता है कि लालू-नीतीश एकता तीनों सीटें हासिल करने में सफल हो जाएं। ऎसा नहीं हुआ तो बाकी दो सीटों में से एक को शरद यादव हासिल करना चाहेंगे। उनके पास भी दिल्ली में ठौर नहीं बचा। दूसरी सीट पर नीतीश कुमार और लालू दोनों की निगाहें हैं।
नीतीश के पास राज्य में काम नहीं और लालू के परिवार को दिल्ली में घर चाहिए। फिलहाल इस एकता के पीछे यही बड़ा कारण लगता है। इसे सैद्धांतिक जामा पहनाया गया है। लालू-नीतीश की जोड़ी बन सकती है और इन्हें लगता है कि वे मिलकर भाजपा को हरा सकते हैं तो उन्हें विधानसभा चुनाव करा लेना चाहिए। सदन का डेढ़ साल का कार्यकाल अभी बाकी है। इस सरकार की कोई गारंटी नहीं कि अगले डेढ़ साल चलेगी। मानसून आने वाला है, दिल्ली की हवाओं का असर पटना में भी होगा।
लालू-नीतीश की जोड़ी
नीतीश और लालू प्रसाद दोनों छात्र राजनीति और जेपी आंदोलन से निकले हैं। दोनों ने एक ही साथ राजनीति शुरू की।
अस्सी और नब्बे के दशक तक दोनों साथ रहे। लालू प्रसाद प्रदेश के सीएम बने और नीतीश कुमार संसद पहुंचे।
लालू के सीएम बनने के बाद दूरियां बनीं, तो 1994 में नीतीश ने समता पार्टी बनाई। सीपीआई-एमएल के साथ चुनाव लड़ा।
वष्ाü 1996 में नीतीश ने केंद्र में भाजपा को समर्थन दिया। जेडीयू और भाजपा गठबंधन ने वर्ष 2005 में लगभग डेढ़ दशक का लालू राज खत्म किया।
नीतीश जून 2013 में बीजेपी से अलग हो गए। आम चुनाव में उनकी और लालू की स्थिति कमजोर हुई, तो फिर दोनों ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया। -
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