आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा गया है। सूर्य के मिथुन राशि में प्रवेश करने पर यह एकादशी आती है। इसी दिन से श्रीविष्णु क्षीर सागर में शयन पर चले जाते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें जगाया जाता है। उस दिन को देवोत्थान एकादशी कहा जाता है। चार माह के इस अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है। इस अवधि में श्रीविष्णु के निद्रा में लीन और लोगों के खेती-किसानी में व्यस्त रहने के कारण मांगलिक अनुष्ठान निषेध माने गए हैं। यही वह समय है, जब धरती हरीभरी होकर उल्लास में डूब जाती है और आरंभ होता है जीव-जंतुओं के नवसृजन का काल।
आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी की अवधि को चातुर्मास कहा गया है। मानसून की बौछारें पड़ते ही जब धरती सर्वत्र हरीभरी नजर आने लगती है, तब शुरू होता है खेती-किसानी का दौर। किसान को कहां फुर्सत की वह खेती को छोड़ अन्य कार्यो के लिए समय निकाले। लिहाजा, इस कालखंड में मांगलिक अनुष्ठान निषेध कर दिए गए। ऐसे में श्रीविष्णु समेत समस्त देवतागण भी आराम करने शयनधाम की ओर चल पड़ते हैं। जो लोग कृषि, व्यापार आदि करते हैं उनकी व्यस्तता बढ़ना तो लाजिमी है, लेकिन जिनके पास साधन भी हैं और वक्त भी, उनके लिए भगवद् भक्ति का यह सर्वोत्तम समय है। इस अवधि में चारधाम समेत अमरनाथ, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, रामेश्वरम् आदि तीर्थो की यात्रा का मंतव्य भी यही है। आचार्य डॉ.संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि मांसाहारियों के लिए चातुर्मास में मांस-मछली का सेवन वर्जित है। यूं तो शास्त्र मांस भक्षण की आज्ञा नहीं देते, लेकिन जो इसके आदी हैं उन्हें भी इस अवधि में तामसी भोजन नहीं लेना चाहिए।
इस बार क्षय है एकादशी तिथि
आचार्य डॉ.संतोष खंडूड़ी के अनुसार इस बार एकादशी तिथि क्षय होने के कारण वास्तविक रूप में चातुर्मास का प्रारंभ नौ जुलाई को द्वादशी तिथि से होगा। इसलिए एकादशी का व्रत मंगलवार को भी रखा जा सकता है।
वंश परंपरा बढ़ाने का काल
चातुर्मास में जीव-जंतु प्रजनन के दौर से गुजरते हुए अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। इसलिए जीव उत्पत्ति के इस काल में मांस-मछली का भक्षण आरोग्य की दृष्टि से निषेध है। स्वामी दिव्येश्वरानंद के अनुसार चातुर्मास में तामसी भोजन शरीर पर विपरीत प्रभाव डालता है। इस दौरान सात्विक भोजन ही ग्रहण किया जाना चाहिए। चातुर्मास के चार महीनों में सभी वारों को व्रत का विधान भी इसीलिए किया गया है कि हम हल्का एवं सुपाच्य भोजन करने को प्रेरित हों।
पूजा से कम नहीं खेती-किसानी
उत्तराखंड के लिए चातुर्मास के चारों महीनों की विशेष अहमियत है। देवभूमि होने के कारण यहां हर पर्व-त्योहार विशिष्टता लिए हुए है। श्रावण मास में गंगा का पावन जल लेने देशभर से कांवड़िए यहां पहुंचते हैं। फिर उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र तो पूरी तरह कृषि पर निर्भर है, इसलिए खेती-किसानी यहां देवपूजा से कम नहीं है। देवशयनी एकादशी को श्रीविष्णु लक्ष्मी के साथ शयनधाम पर चले जाते हैं, लेकिन उनका आशीष धरतीवासियों पर निरंतर बना रहता है। यही वजह है कि उत्तराखंड में खेती-किसानी के कार्य धार्मिक अनुष्ठान की तरह संपादित होते हैं।
प्राकृतिक बसेरे छोड़ देते हैं जानवर
चातुर्मास में ही जंगली जानवर अपने प्राकृतिक बसेरे छोड़ आबादी वाले इलाकों की ओर रुख करते हैं। इसलिए इस अवधि में परिवेश की साफ-सफाई पर विशेष रूप से ध्यान देने की सलाह दी गई है, ताकि उनके हमलों से सुरक्षित रहा जा सके।

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